लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
आत्मघाती नारी
इस कॉलम के अन्तर्गत औरतों के अधिकार और आज़ादी के बारे में अर्से से लिखती रही हूँ। एक दिन मैंने पाठकों की प्रतिक्रिया जानना चाही। समाचार-दफ़्तर से बताया गया कि मेरे लिखने की सबसे ज़्यादा निन्दा औरतों ने की है। 'लो, जिसके लिए की चोरी, वही कहे चोर'। ना, मेरे लिए यह खबर, कोई नयी नहीं है।
मुझसे बहुतेरे लोगों ने कहा है- 'औरतों के दोषों के बारे में भी तो कुछ लिखो-'। सबसे मज़ेदार बात यह है कि यह फर्माइश औरतों की तरफ़ से आयी थी।
“भई, औरतों में क्या दोष है?' मैंने पूछा।
'अच्छा? उन लोगों में तुम्हें कोई दोष नज़र नहीं आता?' औरतों की आँखें आश्चर्य से, मानो आसमान पर जा चढ़ीं।
'जो ख़ुद ही शिकार हों, उनका भला क्या दोष?' मैंने लम्बी साँस छोड़ी।
लेकिन जो शिकार है, उनका भी दोष लिखे बिना और कोई उपाय नहीं था। पुरुषों ने भी औरतों के दोष लिखने की फर्माइश की, औरतों ने भी कही। कुछ ही दिनों पहले मैंने नवनीता देवसेन की आलोचना करते हुए जो लिखा था, उसके लिए नारी और पुरुष, दोनों की तरफ़ से जितनी वाहवाही मिली, किसी भी अन्य रचना के लिए उतनी नहीं मिली। जो नारी और पुरुष यह चाहते हैं कि मैं औरतों के दोषों के बारे में लिखू, उनमें मैं कोई अन्तर नहीं कर पाती। उन लोगों की भाषा एक जैसी होती है, इशारा भी एक जैसा! नारी जब पुरुषों का प्रतिनिधित्व करती है और पुरुषतन्त्र की समर्थक और सहायिका की भूमिका निभाने में सक्रिय होती है तब नारी-पुरुष, अलग-अलग पहचान में नहीं आते। कभी-कभी मुझे यह भी लगता है कि पुरुष को अगर औरत की सहायता न मिली होती, इतना सहयोग न मिला होता, सिर्फ पुरुषों की साजिश और षड्यन्त्र, सिर्फ पुरुषों की बुद्धि और शक्ति पर पुरुषतन्त्र नहीं टिक पाता।
सास-बहू के झगड़े तो सिर्फ भारतीय उपमहादेश में ही सुनती हूँ। जिस समाज में औरत ससुराल में नहीं रहती, आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर होती हैं और लिंग-वैषम्य की शिकार नहीं होतीं, वहाँ सास-बहू में कोई झगड़ा नहीं होता।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं